जातिगत जनगणना: कांग्रेस-बीजेपी के बीच श्रेय की जंग, अचानक फैसले के पीछे मोदी सरकार की रणनीति



1 मई 2025 को भारत में जातिगत जनगणना को लेकर एक नया सियासी तूफान खड़ा हो गया है। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने 30 अप्रैल 2025 को कैबिनेट कमेटी ऑन पॉलिटिकल अफेयर्स (CCPA) की बैठक में आगामी जनगणना में जाति आधारित गणना को शामिल करने का ऐतिहासिक फैसला लिया। इस घोषणा ने न केवल सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है, बल्कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के बीच श्रेय लेने की होड़ को भी तेज कर दिया है। साथ ही, यह सवाल भी उठ रहा है कि आखिर 11 सालों तक इस मांग को नजरअंदाज करने वाली मोदी सरकार ने अचानक यह फैसला क्यों लिया? आइए, इस पूरे घटनाक्रम को विस्तार से समझते हैं।
जातिगत जनगणना का महत्व और इतिहास
जातिगत जनगणना भारत में सामाजिक-आर्थिक नीतियों को प्रभावी बनाने का एक अहम औजार मानी जाती है, खासकर अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), दलित और आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं के संदर्भ में। भारत में आखिरी बार व्यापक जातिगत जनगणना 1931 में ब्रिटिश शासन के दौरान हुई थी। आजादी के बाद, 1951 से जनगणना में केवल अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) की गणना की जाती रही है, जबकि अन्य जातियों का डेटा एकत्र नहीं किया गया।
कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए-2 सरकार ने 2010 में प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी, जिसके बाद 2011 में सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) हुई। लेकिन इस सर्वे में 46 लाख जातियों की अविश्वसनीय संख्या सामने आई, जिसके चलते डेटा कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। कांग्रेस का दावा है कि उसने पहली बार जाति आधारित डेटा जुटाने की कोशिश की, लेकिन बीजेपी ने इस डेटा को दबा दिया। दूसरी ओर, बीजेपी का कहना है कि कांग्रेस ने इस मुद्दे का इस्तेमाल सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए किया और ठोस कदम नहीं उठाए।
कांग्रेस और बीजेपी के बीच श्रेय की जंग
मोदी सरकार के इस फैसले के बाद दोनों प्रमुख दलों के बीच श्रेय लेने की होड़ शुरू हो गई है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा, "हमारी पार्टी ने लगातार जातिगत जनगणना की मांग उठाई, जिसके सबसे बड़े समर्थक राहुल गांधी रहे हैं। मैंने संसद में कई बार यह मुद्दा उठाया और प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखा।" राहुल गांधी ने इसे सामाजिक न्याय की दिशा में पहला कदम बताते हुए कहा, "हमने संसद में कहा था कि हम जातिगत जनगणना करवाकर ही मानेंगे। सरकार को यह फैसला लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, लेकिन हमें समयसीमा चाहिए।"
कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता उदित राज ने इसे अपनी पार्टी की जीत करार दिया और कहा, "मोदी सरकार मजबूर हो गई। बहुजन समाज राहुल गांधी को धन्यवाद देता है। बीजेपी और आरएसएस ने इसे रोकने की कोशिश की, लेकिन आखिरकार झुकना पड़ा।" कांग्रेस प्रवक्ता अंशू अवस्थी ने बीजेपी पर निशाना साधते हुए कहा, "बीजेपी की नियत पर सवाल है। पहले उन्होंने विरोध किया, अब दबाव में फैसला लिया।"
वहीं, बीजेपी ने इस फैसले को सामाजिक न्याय की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम बताया। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, "कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने सत्ता में रहते हुए दशकों तक जाति जनगणना का विरोध किया और विपक्ष में रहते हुए इस पर राजनीति की। यह फैसला सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को सशक्त करेगा।" बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने इसे "ऐतिहासिक निर्णय" करार देते हुए कहा, "कांग्रेस ने हमेशा जातियों के बीच दुश्मनी बढ़ाकर वोट बैंक की राजनीति की।"
केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कांग्रेस पर तंज कसते हुए कहा, "1951 में जवाहरलाल नेहरू ने जाति जनगणना का विरोध किया था। कांग्रेस ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया। आज जो लोग बाबासाहेब आंबेडकर को भारत रत्न तक नहीं दे सके, वे सामाजिक न्याय की बात करते हैं।"
अचानक फैसले के पीछे क्या है मोदी सरकार की रणनीति?
मोदी सरकार का यह फैसला कई मायनों में चौंकाने वाला है, क्योंकि सरकार ने पहले इस मांग को लगातार खारिज किया था। 2021 और 2023 में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने संसद में कहा था कि जाति आधारित जनगणना की कोई योजना नहीं है। सितंबर 2021 में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि 1951 से जाति गणना को नीतिगत रूप से बंद कर दिया गया था। फिर अचानक यह फैसला क्यों?
पहला कारण राजनीतिक दबाव माना जा रहा है। विपक्ष, खासकर कांग्रेस और क्षेत्रीय दल जैसे समाजवादी पार्टी (SP), राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और जनता दल (यूनाइटेड) ने 2024 के लोकसभा चुनावों में जातिगत जनगणना को बड़ा मुद्दा बनाया था। राहुल गांधी ने "जितनी आबादी, उतना हक" का नारा दिया, जिसने OBC, दलित और अल्पसंख्यक समुदायों में एक नई चेतना जगाई। 2024 के चुनावों में बीजेपी को उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में नुकसान हुआ, जहां सपा और राजद ने "पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक" (PDA) रणनीति के तहत बड़ा प्रभाव डाला। सपा-कांग्रेस गठबंधन ने उत्तर प्रदेश में 80 में से 43 सीटें जीतीं, जो बीजेपी के लिए बड़ा झटका था।
दूसरा, बिहार विधानसभा चुनाव नजदीक हैं। बिहार में 2023 में नीतीश कुमार की सरकार ने जाति सर्वे कराया था, जिसके बाद आरक्षण को 50% की सीमा से बढ़ाकर 65% किया गया (हालांकि इसे पटना हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया)। बीजेपी, जो नीतीश कुमार की सहयोगी है, इस मुद्दे पर पिछड़ना नहीं चाहती थी। बीजेपी को डर था कि विपक्ष इस मुद्दे को भुनाकर OBC और दलित वोटरों को अपने पक्ष में कर लेगा।
तीसरा, बीजेपी की हिंदुत्व की रणनीति अब उतनी प्रभावी नहीं रह गई है। बीजेपी ने पिछले एक दशक में OBC और दलित वोटरों को हिंदू एकता के नाम पर अपने साथ जोड़ा था, लेकिन जातिगत जनगणना की मांग ने इस एकता को तोड़ने का काम किया। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बीजेपी इस फैसले के जरिए OBC और दलित समुदायों को यह संदेश देना चाहती है कि वह उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने वाली एकमात्र ताकत है।
चौथा, गठबंधन की मजबूरी भी एक बड़ा कारण है। 2024 के चुनावों के बाद बीजेपी पूर्ण बहुमत से दूर रह गई और उसे जद (यू), तेलुगु देशम पार्टी (TDP) और लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) जैसे दलों पर निर्भर रहना पड़ा। ये दल सामाजिक न्याय के मुद्दों को प्राथमिकता देते हैं, और बीजेपी पर दबाव था कि वह उनकी मांगों को माने।
क्या होगा प्रभाव?
जातिगत जनगणना का फैसला सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ा कदम हो सकता है, लेकिन इसके सियासी निहितार्थ भी कम नहीं हैं। यह डेटा सरकार को पिछड़े वर्गों के लिए बेहतर नीतियां बनाने में मदद करेगा, लेकिन यह भी तय है कि इससे जाति आधारित राजनीति और तेज होगी। बीजेपी को उम्मीद है कि यह फैसला विपक्ष के हाथ से एक बड़ा चुनावी हथियार छीन लेगा, खासकर बिहार जैसे राज्यों में। वहीं, विपक्ष इसे अपनी जीत के रूप में पेश कर रहा है और अब समयसीमा की मांग कर रहा है।
हालांकि, कुछ सवाल अभी अनुत्तरित हैं। सरकार ने इस जनगणना की समयसीमा नहीं बताई है। अधिकारियों का कहना है कि यह प्रक्रिया 2026 के अंत या 2027 की शुरुआत में शुरू हो सकती है। साथ ही, बीजेपी पर यह आरोप भी लग रहा है कि यह फैसला महज एक चुनावी रणनीति है, और सरकार इस डेटा को पारदर्शी तरीके से लागू करेगी या नहीं, यह देखना बाकी है।

जातिगत जनगणना का फैसला भारत की सामाजिक और राजनीतिक संरचना में एक बड़ा बदलाव ला सकता है। यह न केवल सामाजिक न्याय को मजबूत करेगा, बल्कि यह भी तय करेगा कि आगामी चुनावों में कौन सा दल OBC और दलित वोटरों का भरोसा जीत पाता है। कांग्रेस और बीजेपी के बीच श्रेय की जंग ने साफ कर दिया है कि यह मुद्दा अब सिर्फ नीतिगत नहीं, बल्कि सियासी हथियार बन चुका है। जहां तक मोदी सरकार के अचानक फैसले का सवाल है, यह साफ है कि विपक्ष का दबाव, गठबंधन की मजबूरी और चुनावी रणनीति ने इस फैसले को जन्म दिया। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या यह फैसला वाकई सामाजिक समानता की दिशा में एक कदम होगा, या फिर सिर्फ एक चुनावी जुमला बनकर रह जाएगा? इसका जवाब आने वाले दिनों में ही मिलेगा।

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